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Showing posts from March, 2018

क्यों किया जाता है पूजा में कर्पूर का उपयोग?

भगवान की पूजा एक ऐसा उपाय है, जिससे जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याएं हल हो जाती हैं। इसी वजह से पूजन कर्म के संबंध में कई सावधानियां और विधियां बताई गई हैं। कहा जाता है कि पूरी विधि-विधान से पूजन करने पर ही किसी भी व्रत या पूजन का पूरा परिणाम मिलता है। इसीलिए जब भी हमारे घर में किसी तरह के पूजन का आयोजन किया जाता है तो किसी शास्त्रों को जानने वाले पंडित को बुलाया जाता है। पूजा के कुछ विधान ऐसे भी हैं, जिन्हें रोज पूजा के समय करने पर पूजा के पूर्ण फल की प्राप्ति होती है। हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों तथा पूजन में उपयोग की जाने वाली सामग्री के पीछे सिर्फ  धार्मिक कारण ही नहीं है, इन सभी के पीछे कहीं न कहीं हमारे ऋषि-मुनियों की वैज्ञानिक सोच भी निहित है। प्राचीन समय से ही हमारे देश में विभिन्न धार्मिक कार्यक्रमों में कर्पूर का उपयोग किया जाता है। कर्पूर का सबसे अधिक उपयोग आरती में किया जाता है। प्राचीन काल से ही हमारे देश में घी के दीपक व कर्पूर से देवी-देवताओं की आरती करने की परंपरा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भगवान आरती करने से प्रसन्न ह

जन्मदिन पर क्या और क्यों नहीं करना चाहिए?

जन्मदिन हर व्यक्ति के जीवन का बहुत ही विशेष दिन होता है। इसीलिए सभी लोग चाहे वो आम हो या खास अपने बर्थ-डे को विशेष तरह से मनाना पसंद करते हैं। कुछ लोग इस दिन अपने घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान करना पसंद करते हैं तो कुछ अपने दोस्तों व रिश्तेदारों के साथ पार्टी करना पसंद करते हैं। जन्मदिन चाहे कैसे भी मनाएं, मतलब सिर्फ  अपनी खुशियों और खास लम्हों को अपनों के साथ बांटने से है या कहें सेलीब्रेशन से है। हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार यदि हम अपना जन्मदिन मनाएं तो हमारे शास्त्रों के अनुसार जन्मदिन के दिन कुछ कार्य ऐसे हैं, जिन्हें करना शास्त्रों में अच्छा नहीं माना गया है। ये कार्य इस प्रकार है- जन्मदिन पर नाखून एवं बाल काटना, वाहन से यात्रा करना, कलह, हिंसाकर्म, अभक्ष्यभक्षण (न खाने योग्य पदार्थ खाना), अपेयपान (न पीने योग्य पदार्थ पीना), स्त्री संपर्क से प्रयत्नपूर्वक बचना चाहिए। इसी तरह दीपक का बुझना आकस्मिक मृत्यु यानी अपमृत्युसे संबंधित है। इसे अशुभ माना गया है। इसीलिए मोमबत्ती जलाकर जन्मदिन नहीं मनाना चाहिए। हिंदू संस्कृति के अनुसार दिन सूर्योदय से आरंभ होता है। यह समय ऋषि-मुनियों

अश्वमेध यज्ञ क्या है?

वैदिक परंपरा में प्रचलित अनेक प्रकार के यज्ञों में अश्वमेध यज्ञ  महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में इससे संबंधित दो मंत्र मिलते हैं, जबकि वेदोत्तर साहित्य में इसकी विस्तृत चर्चा है। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड और महाभारत में भी अश्वमेध यज्ञ का वर्णन है। रावण विजय के उपरांत राम द्वारा छोड़े गए अश्व को लेकर लव-कुश व रामसेना का युद्ध प्रसिद्ध है। महाभारत में युधिष्ठिर ने भी कौरवों पर विजय के बाद पापमोचन के लिए अश्वमेध यज्ञ किया था। वस्तुत: यह एक राजनीतिक यज्ञ था। जिसे वही सम्राट कर सकता था जिसका आधिपत्य अन्य नरेश स्वीकारते हों। इसमें एक अश्व छोड़ा जाता था, वह जहां तक जाता, वह भूमि यज्ञकर्ता की मानी जाती थी। विरोध करने वाले को अश्व के पीछे आ रही यज्ञकर्ता की सेना से युद्ध करना होता था। ऐतरेय ब्राह्मण में पूरी पृथ्वी पर विजय के बाद यह यज्ञ करने वाले महाराजाओं की सूची भी मिलती है। यह यज्ञ वसंत या ग्रीष्म ऋतु में होता था और करीब एक वर्ष इसके प्रारंभिक अनुष्ठानों की पूर्णता में लग जाता था। चूंकि यह शक्ति प्रदर्शन व सीमा विस्तार का अनुष्ठान था। अत: बहुत कम राजा ही इसे कर पाते थे। यही कारण ह

ऐसा क्यों ??

मुख्य द्वार पर आंकड़े का पेड़ क्यों होता है शुभ? पेड़-पौधों का सबसे बड़ा फायदा है कि उनसे हमें ऑक्सीजन गैस प्राप्त होती है। इसके अलावा प्राकृतिक दृष्टिकोण से भी पेड़-पौधों का सर्वाधिक महत्व है। इनके बिना वातावरण को संतुलित किया ही नहीं जा सकता। हर परिस्थिति में हरियाली हमारे लिए फायदेमंद ही है। इन फायदों के साथ ही शास्त्रों के अनुसार कई धार्मिक और ज्योतिषीय महत्व भी बताए गए हैं। कुछ पेड़-पौधे ऐसे हैं जिनसे हम कई चमत्कारिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। हमारे घर या घर के आसपास होने पर ही इनके फायदे प्राप्त होते हैं। इन पेड़ों-पौधों में आंकड़े का पौधा भी शामिल है, यदि यह घर के सामने हो तो बहुत लाभ पहुंचाता है। शास्त्रों अनुसार आंकड़े के फूल शिवलिंग पर चढ़ाने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं और अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। आंकड़े पौधा मुख्यद्वार पर या घर के सामने हो तो बहुत शुभ माना जाता है। इसके फूल सामान्यत: सफेद रंग के होते हैं। विद्वानों के अनुसार कुछ पुराने आंकड़ों की जड़ में श्रीगणेश की प्रतिकृति निर्मित हो जाती है जो कि साधक को चमत्कारी लाभ प्रदान करती है। ज्योति

ऐसा क्यों ??

 क्यों स्त्री को माना जाता है लक्ष्मी का रूप? पैसा या धन हमेशा से ही सभी की सबसे महत्वपूर्ण जरूरत रहा है। वैदिक काल से ही धन के महत्व को बताया गया है। धन प्राप्ति के लिए जरूरी है कि धन की देवी महालक्ष्मी की कृपा बनी रहे। शास्त्रों में बताया गया है कि किन महिलाओं पर सदैव देवी महालक्ष्मी की कृपा बनी रहती है। शास्त्रों के अनुसार स्त्री को लक्ष्मी का ही रूप माना गया है। इसी वजह से स्त्रियों के संबंध में कई महत्वपूर्ण नियम बनाए गए हैं जिससे उनके घर में सदैव महालक्ष्मी की कृपा बनी रहे और उसके परिवार में कभी भी किसी वस्तु की कमी न हो। जानिए, किन स्त्रियों पर महादेवी लक्ष्मी सदैव कृपा बरसाती रहती है। महालक्ष्मी कहां निवास करती है? इस संबंध में देवी ने स्वयं बताया है कि-        जो स्त्रियां स्वभावत: सत्यवादिनी तथा पतिव्रता, धार्मिक आचरण करने वाली हैं, जो भगवान में आस्था रखने वाली हैं, उनके यहां मैं निवास करती हूं। जो स्त्रियां घर को और बर्तन को शुद्ध तथा स्वच्छ रखने वाली हैं और गायों की सेवा तथा धन-धान्य संग्रह करती हैं, उनके यहां भी मैं सदा निवास करती हूं।      जो स्

भगवान शिव का प्रिय वाद्य डमरू क्यों है?

भगवान शिव का प्रिय वाद्य डमरू क्यों है? हिंदू परंपरा के प्राय: सभी प्रमुख देवताओं के स्वरूप में उनके वस्त्र, आभूषण, शस्त्र और वाहनों के अलावा वाद्य का भी समावेश किया गया है। विष्णु के साथ शंख, सरस्वती के साथ वीणा, कृष्ण के साथ बांसुरी आदि इसी के उदाहरण हैं। भगवान शिव अनादि देवता हैं, अर्थात न उनका जन्म हुआ, न ही उनके अस्तित्व की कोई शुरूआत है। वे थे, हैं और बस रहेंगे। यही अनादि भाव का अर्थ है। इस अर्थ में भगवान शिव योग, कला, संगीत, ज्ञान आदि की समस्त धाराओं के प्रणेता और प्रेरक हैं। मान्यता है कि संसार में जहां जो कुछ भी है उन सबका मूल उत्स भगवान शिव ही हैं। इस अर्थ में डमरू उनका प्रिय वाद्य है, क्योंकि यह मूल नाद (स्वर) का प्रतीक है। जिस तरह ओंकार भी नाद है और भगवान शिव से संबद्ध है उसी तरह डमरू वाद्य के रूप में शिव से जुड़ा हुआ है। इसे आनद्ध वर्ग का वाद्य कहा गया है, जिसे कापालिक भी धारण करते हैं। कहा जाता है कि सुप्रसिद्ध पाणिनीय व्याकरण के प्रारंभिक १४ सूत्र भगवान शंकर के १४ बार किए गए डमरू वादन से ही निकले थे। भगवान की कृपा से महर्षि पाणिनी को यह ध्वनि व्यक्त अक्षरों के रू

तिलक माथे के बीच ही क्यों किया जाता है?

तिलक माथे के बीच ही क्यों किया जाता है? तिलक मस्तक का विशेषकर ललाट का शृंगार है, आभूषण है। किसी भी व्यक्ति की दृष्टि सर्वप्रथम चेहरे पर ही पड़ती है जिसका सबसे ऊपरी भाग मस्तक या ललाट होता है। स्वभावत: प्रथम दृष्टया आकर्षण का केंद्र ललाट ही बनता है। यही कारण है पारंपरिक रूप से शृंगार प्रिय भारतीयों ने ललाट के शृंगार पर जोर दिया। इसके लिए तिलक के कई प्रकार अपनाए। स्त्रियों के लिए बिंदी रूप में और पुरुषों के लिए विविध प्रकार के तिलक रूप में। तिलक लोकाचार में शृंगार है और अध्यात्म में शांति के प्रयास का एक प्रयोग। मनुष्य के मस्तक के ठीक मध्य स्थान अर्थात् आंख की दोनों भोहों के बीच तिलक लगाने का विधान है। ठीक मध्य में आज्ञा चक्र व ब्रह्म रंध्र होता है। यह स्थान भगवान शिव की तीसरी आंख के समान है। यह ज्ञान एवं एकाग्रता से परिपूर्ण माना गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार यह पूरे शरीर का विशेष/केंद्र स्थान है। आज्ञा चक्र के माध्यम से ही हमें किसी भी कार्य करने की प्रेरणा मिलती है और इसी से ही सारे कार्य को करने में सक्षम होते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार मस्तिष्क के बीचोंबीच ब्रह्म स्वरू

ऐसा क्यों ?

तिरूपति बालाजी में क्यों किया जाता है  बालों का दान? भारत में अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न परंपराएं प्रचलित हैं। शास्त्रों के अनुसार परंपराओं के पीछे कई रहस्य छिपे होते हैं। इनका पालन करने वाले इंसान को कई प्रकार से दैवीय कृपा प्राप्त होती है और जीवन सुख तथा समृद्धिशाली बनता है। ऐसी ही भिन्न-भिन्न प्रथाओं में से एक है तिरूपति बालाजी के नाम पर केश दान करना। तिरूपति बालाजी मंदिर में कई तरह प्रथाएं प्रचलित हैं। यहां सिर के सभी बाल कटवाए जाते हैं यानी भक्त पूरी तरह गंजे हो जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यहां केश दान करने से भगवान बालाजी की कृपा प्राप्त होती है। बालाजी भगवान विष्णु के रूप माने जाते हैं, इनकी प्रसन्नता के बाद स्वत: महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है और धन से जुड़ी सभी समस्याएं समाप्त होती हैं। तिरूपति बालाजी का मंदिर आंध्र प्रदेश के चित्तुर जिले में स्थित है। बालाजी को धन और वैभव का भगवान माना जाता है। ऐसा माना जाता है, यहां साक्षात् भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी विराजमान हैं। वैसे तो यहां कई परंपराओं का चलन है, परंतु केशदान की अनूठी प्रथा सर्वाधिक

ऐसा क्यों ?

क्यों पहाड़ों पर होते हैं देवी के मंदिर?                            जम्मू में वैष्णव देवी हो या हरिद्वार में मनसा देवी, अधिकतर माता मंदिरों का स्थान पहाड़ ही होते हैं। इसीलिए देवी का एक नाम पहाड़ोंवाली भी है। कई बार हमारे मन में भी यह सवाल उठता है कि आखिर माता के पुराने मंदिर अधिकतर पहाड़ों पर ही क्यों होते हैं? क्या इन पहाड़ों से माता का कोई संबंध है? या पौराणिक काल में कोई परंपरा रही होगी। इसका जवाब बहुत कम लोग जानते हैं कि आखिर माता जमीन पर मैदानी इलाकों की बजाय पहाड़ों पर क्यों विराजित हैं।  वास्तव में, इन पहाड़ों और पूरी धरती से माता का संबंध बहुत गहरा है। हमारे वेद-पुराणों में प्रकृति के पांच कारक तत्व माने गए हैं, वे हैं- जल, अग्रि, वायु, धरती और आकाश। इन पांचों के एक-एक अधिपति देवता हैं क्रमश: गणेश, सूर्य, शिव, शक्ति और विष्णु। धरती यानी पृथ्वी की अधिपति शक्ति यानी देवी हैं। शेष चारों प्रमुख देवता हैं। शक्ति यानी दुर्गा को संपूर्ण धरती की अधिष्ठात्री माना गया है। वे शक्ति का रूप हैं। एक तरह से मानें तो वे पृथ्वी की राजा हैं। भारतीय मनीषियों ने पहाड़ों को पृथ्वी का म

श्री माहेश्वरी टाईम्स ‘March 2018’